एक कप चाह

(हमार मूल fb पोस्ट के भोजपुरी रूपांतरण)

——

‘चाह’ जिनगी ह । ‘चाह’ एगो एहसास ह। ‘चाह’  विरह के तड़प ह । ‘ चाह’ मिलन के मिठास ह । आरा -बलिया -छपरा ह  ‘चाह’ । ‘चाह’ भजपुर- रोहतास ह।  ऋतु में वसंत आ माह मधुमास ह।  तबे त सभका के पेय ई  ख़ास ह।

 

एही से केहू चाह के बारे में कहले बा-

“तू पूनम हम अमावस, तू कुल्हड़ वाली ‘चाह’ हम बनारस”

“अइसन ए गो ‘चाह’ सभका होखे नसीब ,कि हाथ मे होखे कप आ सामने महबूब”

‘चाह’ के चाह में छछनत एगो प्रेमी भा कवि के शब्द देखीं-

” ‘चाह’ के कप से उठत धुँवा में,

हमके तहार शक्ल नज़र आवे ला।

तहार एही खयाल में खो के अक्सर

हमार ‘चाह’ ठंढा होखे लागे ला।”

देखीं ए गो  कवि जी ‘कुल्हड़’ आ चाय के बीच  ‘रोमांस’  के कइसे कल्पना कर$ ताड़न–

“जरा$  के आपन करेज़ा , ‘चाह’ के बाहीं में भरे ला, ई कुल्हड़ जइसन इश्क भला के करेला ?”

‘चाह’  खाली ए गो शब्द आ ए गो पेय पदार्थ ना ह , वल्कि ‘चाह’  इश्क ह  ‘चाह’ प्रियतमा ह । ए गो के बनावे के परे ला आ एगो के मनावे के पड़ेला। आ जदि ए में ए गो बिस्किट डालीं त अइसे टूटे ला जइसे इश्क में डूब के दिल टूटे ला । निमन लागे ला डूबत सूरज के साथ छत भा छज्जा प चाह पियल, अदरख -इलाइची के साथे कतरा-कतरा जियल ।

‘चाह’ बने ला कइसे ?

“तनिका पानी ‘रंज’  के उबाल दीं ।

खूब सारा दूध खुशी के ओ में डाल दीं ।

तनिका पत्ती ख़यालन के

ज़रा सा ‘गम’ के कूट के महीन

हंसी के ‘चीनी’  मिला दीं ।

खौले दीं ख़्वाबन के

कुछ देर तक..

ई जिनगी के ‘चाह’ ह ज़नाब !

घूंट घूंट के मज़ा लीं।”

अब तनी बात ‘चाह’ के इतिहास प। ई  ‘चाह’ ओकरे देन ह जवन माटीलगना कोरोना के आविष्कार कइलस। बात ह 2737 BC के । एक दिन चीन के सम्राट शेन नुंग  के  राखल गरम पानी के कप  मे हवा के झोंका से उड़ के कुछ सूखल पतई गिर जाता । जेसे पानी मे रंग आ जाता आ जब चुस्की लिया ता त गजबे स्वाद आ जाता । फिर का , शुरू हो गइल ‘चाह’ के सफर ।सन 350 में पहिलका हाली ‘चाह’ पिये के परम्परा के उल्लेख मिलेला। 1610 ई. में डच व्यापारी लोग चीन से ‘चाह’ के यूरोप ले गइल ।

कवि राज किशोर सिंह जी कह$ तानी –

“एक कप चाह

दूध चीनी के खाली  घोल ना ह

प्रेम के उपहार ह

अतिथिलोगन के स्वागत

आगंतुकन के सत्कार ह।”

 

“एक कप चाह

कुछ ना

खलसा बातचीत के बहाना ह

बराबरी के सूचक ह

प्रेम के ठिकाना ह।”

‘चाह’ एगो अइसन पेय ह जवन कि  चौक – चौपालन प होखे वाली बतकहीन के सम्बल दे के लोकतंत्र के मजबूती देला। एगो अइसन पेय ह जवन  कॉलेज के कैंटीन से ले के गांव के झोपड़ीनुमा दुकान में भी उपलब्ध हो के साम्यवाद के बल देला । भारत में चाहे कतनो भाषायी आ सांस्कृतिक भिन्नता होखे मुसाफिरन के  देश के हर कोना में व सस्ता में उपलब्ध हो ला ।ए गो अइसन पेय जवन कि अमीरी आ गरीबी के भेद के पाट देला।

“धनवानन के ‘चाह’

गरीबन के उपहार

धनहीनन के चाह

अमीरन के सत्कार

एह ‘अफरा तफरी जिनगी’ में

जहाँ मितव्ययिता के बोलबाला बा

ओहिजा आतिथियन के स्वागत में

सबसे अगहर ‘चाह’ के प्याला बा।”

भारत मे ‘चाह’ के इतिहास प बात कइल जाव त 1815 ई. में कुछ अंग्रेज यात्रियन के ध्यान आसाम में उगे वाली चाय के झाडियन प गइल जवना से उहवाँ के कबीलाई लोग एगो पेय बना के पीयत रहे। भारत के गवर्नर जेनरल लार्ड बैंटिक 1834 ई. में ‘चाह’ के परम्परा भारत मे शुरू करे के सम्भावना तलाशे खातिर ए गो  समिति के गठन कइलन। एकरा बाद 1835 में असम में ‘चाय के बगानन’ के लगावल गइल ।

एगो जानल मानल  कवि के कहल ह –

” सिंधु मंथन में अमृत मंथन के बदले चाय के ही प्याली निकलल होई ।” चाय के महिमा से परिचित हो के लोग भांग, मदिरा आ अफ़ीम आदि जहरीली चीजन के  खाइल छोड़ के ‘चाह’ के स्वास्थ्यवर्धक चरणन के सेवन करेला ।

काका हाथरसी जी अपना चाय चक्रम में लिख$  तानी  –

“एकहि साधे सब सधे, सब साधे सब जाय,

दूध- दही- फल अन्न-जल, छोड़ पियल जाव चाय।

छोड़ पियल जाव चाय, अमृत बीसवीं सदी के,

जग-प्रसिद्ध जइसे गंगाजल गंग नदी के।

कहँ ‘काका’, एह उपदेशन के अर्थ जानीं जा ,

बिना चाय के मानव-जीवन व्यर्थ मानीं  जा।”

जब कभी ‘अखियां चार’ हो गइल, आ उनकर माई रवा के ‘चाह’  प बोलावस  त समझीं जिनगी  गुलज़ार हो गइल । तबे त, आशिक लोग कॉफी से ज़्यादा ‘चाह’ के तवज़्ज़ो देला –

 

“चाह पर बोलाव$  त कुछ घर जइसन माहौल बनी ।

ई तहार  कॉफी प बोलावल त

ऑफिस जइसन लागेला।”

‘चाह’ तहार अनगिनत बा गुण । तोहके पी के कवि आपन कविता लिखस, संगीतकार बनावस नया-नया धुन ।चाह बना के ले जा त, बीबी जास मान। चाय रूपी घूस  से दफ्तर में बन जाए काम। चाय के बिना सुबह आ शाम अधूरी। चाय के बिना ट्रेन के सफ़र के बढ़ जाला दूरी ।

 

एही से त ‘काका’ कह गइलन-

 

“प्लेटफारम प यात्री, पानी ला चिल्लाय,

पानी वाला नइखे ,’चाह’ पिहीं जा ‘चाह’ ।

‘चाह’ पिहीं जा ‘चाह’, हिला के बोललस दाढ़ी,

पइसा लिहीं निकाल,नाहीं त छूटल गाड़ी।

काका पी के चाह, बिरोधी दल के नेता,

धुँवाधार व्याख्यान सभा-संसद में देता ।”

कुछ वैयाकरण लोग संस्कृत में ‘चाय’ या चाय में संस्कृत ढूंढे ला। ‘चि + ल्युट्

=चयनम्  : चयनम्+णिच्=चायनम् :  ‘चायृ’   पूजा निशामनयो: – भ्वादि गण के धातु से  अर्थ  लीं त ‘चाय’ श्रमजनितक्लेश के शमन करे ला।अष्टाध्यायी में ‘बहुलं छन्दसि’ के प्रकरण में  ‘चेकीयते यङिपरे चायः…’ आवे ला। निरुक्ते चायमानः में धातु ‘चय’ भी बा।चयतेति चायः। जवन इकठ्ठा कइल जाला  या जवन चाहल जाला । शायद एहीसे भोजपुरी में चाय के ‘चाह’ आ पंजाबी में ‘चा’ कहल जाला।

 

” ‘चाह’ पूछलस हमरा से कि  बोल$  हमार अहमियत का बा ?

त हम कहनी-

मत पूछ कि केतनी कीमत बा तहरो  ?

हमार बनारस जइसन दिल मे तू गंगा जइसन लागे लू ।”

दुनिया भर में ‘चाह’  प  बहुत से किताब भी लिखाइल बा । कुछ प्रमुख किताब बा – सुरेश प्रसाद जी के लिखल -‘चाय महाकाव्य’, दिव्य प्रकाश दुबे के लिखल ‘मसाला चाय’, Aaron Fisher के  The Way of Tea , विश्वनाथ घोष के लिखल चाय-चाय, मैरी आ रॉबर्ट हीस के लिखल  ‘ The Story of Tea , लिंडा गेलार्ड के -The Tea Book इत्यादि ।

 

चांद प प्लॉट खरीदे के मनसा से  एक जना कहलन-

“सुनेनी कि चाँद पर पानी खोजाइल बा ।

अब त बस दूध, चीनी आ चायपत्ती ही ले के जाईब जा।”

 

कुछ लोग कहे ला कि ‘चाह’ एगो नशा ह । हम त कह$ तानी कि-

” नशा जे करेके बा, त चाहे के कइल जाव।

इश्क से त फिर भी अच्छा बा।

नशा इश्क के बुरा बा गालिब

महबूब के हाथ के  ज़हर भी ‘चाह’ लागे ला।”

एह प्रकार से ‘चाह’ के महिमा अपरंपार बा। ‘चाह’ ए गो संस्कार बा।  ईश्वर के दिहल  अनमोल उपहार बा। जब माथा में होखे दरद त ‘चाह’  ए गो उपचार बा। रात भर पढ़ने वाला छात्रन खातिर  नींद से लड़े के हथियार बा। आ सबसे बड़ खूबी त ई बा कि ‘चाह’ भारत के प्रधानमन्त्री बनावे के अचूक औजार बा ।एहीसे —

 

“चलीं एह बेफ़िक्र दुनिया के खुल के जीहल जाव।

सब काम छोड़ के

पहिले एक कप ‘चाह’ पीयल जाव।”

 

लेखक-

बिबेका नन्द मिश्र, लेक्चरर, दिल्ली प्रशासन

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